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मंगलवार, 15 दिसंबर 2020

कुण्डलिया

खेतिहर ने रच दिया, एक नया इतिहास,
एक एकता बन चुकी, मिलकर करें विकास;
मिलकर करें विकास, नहीं मजदूर बनेंगे,
अपनी भूमि पर, इच्छा से काश्त करेंगे ;


सोमवार, 16 नवंबर 2020

कुण्डलिया

भाव नहीं भाषा नहीं, न ही छंद विधान,
अंधकार प्रतीक बिन तुकबंदी का ज्ञान;
तुकबंदी का ज्ञान पटक कर हाथ सुनाते,
मिल जाता है मंच, कवि जी खूब कहलाते;
वाहवाही मिलती वहां, रहता नहीं अभाव,
घिसे पिटे से चुटकुले, देते अच्छा भाव ।

शनिवार, 14 नवंबर 2020

कुण्डलिया

हम पर मैं भारी पड़ा, चढ़ गया मैं का रंग,
मैं के कारण दीखते, सबके न्यारे ढ़ंग ;
सबके न्यारे ढ़ंग , कौन यहां किसे सुहाता,
मधुर मधुर सुना तान , काम कोई पड़ जाता;
दोरंगी जग चाल, दिखाती अपना दम खम,
मैं मैं मैं मैं शेष रही, भूले सब हम हम ।

शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

कुण्डलिया

संस्कृति कायम रहे, मैंने दीवाली आज,
बीस बीस में हो गये, कैसे कैसे काज ;
कैसे कैसे काज कोरोना का हंगामा,
राजा तक भी चोर आज दुनिया ने माना;
भूख बीमारी बढ़ चली, बढ़ी खूब अपकीर्ति,
त्योहारों का देश है, बचा रहे संस्कृति ।

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2020

कुण्डलिया

ध्यान लगाकर देख ले, इस जग का व्यवहार,
नहीं प्रेम का भाव है, सब करते व्यापार;
सब करते व्यापार, अर्थ आंखों के सम्मुख,
बिना अर्थ की बात, बात सब रही निरर्थक;
एक दूजे को दे रहे, देख देख धन मान,
अर्थ बिना यश न मिले, इतना रख ले ध्यान ।

शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

कुण्डलिया

लाख टके की नौकरी, करी चाकरी खूब,
धन में खेला खेल तू, मन पर चढ़ गई धूल;
मन पर चढ़ गई धूल , धूल को कौन हटाये,
पैसा तेरे पास , प्यार नजदीक न आये;
पैसा पैसा दीखता, नहीं दीखती शाख ,
हटकर चलते लोग हैं, करी कमाई लाख।

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

कुण्डलिया

चिंतन मंथन कर रहा, बात न आई हाथ,
इतना अब तू जान ले, समय नहीं है साथ;
समय नहीं है साथ, कौन मार्ग बतलाये,
जिस पर है विश्वास, वही तुझको भटकाये;
समय समय की बात, समय करवाता नृतन,
देख समय की चाल , छोड़ कर सारा चिंतन ।


मंगलवार, 13 अक्तूबर 2020

कुण्डलिया

माता तो माता रहे, बनता पूत कपूत,
भाव भावना दूर धर, बनता ऐसा भूत;
बनता ऐसा भूत , बात अपनी मनवाता,
दो कौड़ी का पूत, मात को आंख दिखाता;
कैसे बनते भाव, पूत बैरी बन जाता,
तो भी मांगे खैर, बनी माता तो माता ।

चिंतन

बुधवार, 23 सितंबर 2020

कुण्डलिया

चिड़िया भूखी मर रहीं, मौज मनाते मोर,
चौकीदारी जो करें, खुद ही बनता चोर ;
खुद ही बनता चोर , मोर को खूब चुगाता,
छोटी-छोटी चिड़ियाओं को खूब सताता ;
कर भारत में वास , सूंघ जादू की पुड़िया,
बन जायेगा मोर , भले कोई हो चिड़िया ।

गुरुवार, 17 सितंबर 2020

कुण्डलिया

भाग्य भरोसे छोड़ कर, दें कुयें में डाल,
जोड़ी जब मिलती नहीं,  हर दिन कटे बवाल;
हर दिन कटे बवाल , मौन रह कर सह जाती,
मन की बात किसी के सम्मुख न कह पाती ;
कर दहिया में वास, सभी को दिखा सौभाग्य,
मन में विचलन रोज, यही है अपना भाग्य ।

रविवार, 13 सितंबर 2020

कुण्डलिया

सच को खोजन जब चली, मिली झूठ पर झूठ,
सबसे नीचे सच दबी, नित नित चढ़ती झूठ ;
नित नित चढ़ती झूठ , झूठ नाचे इठलाये,
खेंच रही सच सांस , झूठ तो खुशी मनाये ;
कर दहिया में वास गुजारा करना सचमुच,
हो जाता अपमान यहां जो बोलेगा सच ।

रविवार, 23 अगस्त 2020

कुण्डलिया

पहले हम गांधी बने, लेकर चरखा हाथ,
पुनः हजामत छोड़ कर, बने रवीन्द्र नाथ;
बने रवीन्द्र नाथ, अभी हम मोर चुगाते,
फूटी जिनकी आंख, प्रशंसा उनसे पाते;
कर दहिया में वास, काम बुद्धि से ले ले,
डिजिटल नकली चित्र, बहुत देखे हैं पहले ।

शनिवार, 22 अगस्त 2020

कुण्डलिया

तन और मन का जोड़ कर, दे कुदरत से जोड़,
सच मानों हे मानुषा, होगा तू बेजोड़;
होगा तू बेजोड़, कष्ट सब दूर हटेगा ;
बन जाये समभाव, कष्ट सब आप कटेगा;
कर दहिया में वास , अगर जाता दोहरापन,
अध्यात्म की राह , जुड़े कुदरत से मन-तन ।

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

कुण्डलिया

लोक तंत्र को कर रहे, नेता आज हलाल,
लोक खड़ा हो देखता, करता नहीं मलाल;
करता नहीं मलाल, पेट की चिंता भारी ,
छूट चुके सब काम, लोक की यह लाचारी;
बुद्धि जीवी कर रहे , देख देख कर शोक,
मुट्ठी भर ही शेष हैं, शेष यहां सब लोक ।

शनिवार, 15 अगस्त 2020

कुण्डलिया

नियति ने कोमल रची, यह नारी की जात ,
तन से भी कोमल बने, मन के सब जज्बात;
मन के सब जज्बात , सहारा इसको चाहता,
वरना कठिन कठोर समय इस पर छा जाता;
कर दहिया में वास, पुरुष से बने सुगति ,
वरना रहती नहीं नार की अपनी नियति ।

बुधवार, 5 अगस्त 2020

कुण्डलिया

बाल्मिक ने रच दिया, एक सुंदर सा काव्य;
भाव लोककल्याण का, चरित एक सम्भाव्य;
चरित एक सम्भाव्य पथिक उत्तम मार्ग का;
राज-समाज सब त्याग, करे हित जो सब ही का;
तुलसी ने अपने समय, लिख दिया राम चरित ;
कवि कल्पना छंद कथा, रामायण बाल्मिक।

शनिवार, 1 अगस्त 2020

कुण्डलीयां

सबला बनने की ललक , कैसा चढ़ा बुखार;
पूरक बन पैदा हुए, दुनियावीं व्यवहार ;
दुनियावीं व्यवहार, कर्म दोनों का न्यारा;
कर्म किए बिना नहीं यहां चल सकता चारा;
कर दहिया में वास, नहीं रह पाये अबला;
मिले पति का प्यार जिसे, वह खुद ही सबला ।

मातृशक्ति सशक्त हो, बात चली यह खूब;
हर नुक्कड़ हर चौंक पर, मची हुई है धूम;
मची हुई है धूम, नहीं अबला रह पाये;
सम्भवतः यह शब्द कोष से ही मिट जाये;
कर दहिया में वास, फिरेगी नर की दृष्टि;
बस तब सबला बन पायेगी मातृशक्ति ।


शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

कुण्डली

नेकी करके नेक सी, न्यूज फीड पर डाल;
वाह वाह होगी तभी, होगा मालामाल;
होगा मालामाल, टिप्पणी खूब मिलेंगी;
देख देख कर रंगत तेरी, खूब खिलेंगी;
कर दहिया में वास, करो अब फेंका फेंकी;
पता करेगा कौन, करी क्या सचमुच नेकी ।

रविवार, 26 जुलाई 2020

कुण्डली

सरगर्मी नित बढ़ चली,  बही चुनावी ब्यार;
बोतल के मुंह खुल गये, बढ़ा प्रेम व्यवहार;
बढ़ा प्रेम व्यवहार, प्रेम में रंग जायेगा ;
रसना को रस मिले, कौन अब घर जायेगा;
कह दहिया सुन बात, जेब में आती गर्मी;
तेरे प्रेमी लोग , बढ़ाते तब सरगर्मी ।

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

कुण्डली

कबिरा-तुलसी-जायसी, रचे छंद पर छंद;
नहीं स्वयं पर मुग्ध थे, ज्यों अब के कविवृंद;
ज्यों अब के कविवृंद, आप ही ढोल बजाते;
कवि कवि मैं कवि सुनो ! खुद को खा जाते;
कर दहिया में वास, बचा ले आप जमीरा;
आप फूटते छंद, निरक्षर संत कबीरा ।

सोमवार, 20 जुलाई 2020

तीन कुण्डली

अभिनेता ही अभिनेता, रह गया इनका देश;
अभिनय इनका चल गया, बदल दिया परिवेश;
बदल दिया परिवेश, नकल फिल्मों की करके;
खान-पान, परिधान, यहां सब कुछ फिल्मों से;
कर दहिया में वास, देखती ऐसे नेता ;
नेता यहां न एक, बन चुके सब अभिनेता। (1)

कुदरत की माया अजब , सिखा रही यह खेल;
दोनों पाले खुद रहो, नहीं किसी से मेल ;
नहीं किसी से मेल, वैरागी बनना होगा;
भीतर का सब ज्ञान, कोरोना सबको देगा;
कर दहिया में वास, सदा से अपनी फिदरत;
सदा अकेली रही, आज कहती जो कुदरत ।(2)

नफरत से नफ़रत बढ़े, बढ़े प्रेम से प्रेम;
नफरत करनी छोड़ दो, करके पक्का नेम;
करके पक्का नेम, तभी विकसित हो पायें;
वरना इस घृणा से, खुद घृणित कहलायें ;
कर दहिया में वास, जगत को जाना कुदरत;
सब उसकी संतान, कहो किससे हो नफरत ।(3)


बुधवार, 15 जुलाई 2020

तीन कुण्डली

कोयल कूकी आम पर, लटक गया जब बौर;
भ्रमर भी तो बौर पर , हो गया खूब विभोर ;
हो गया खूब विभोर, सुगंध लगी थी प्यारी ;
प्राकृतिक यह प्रेम,  भावना प्यारी प्यारी ;
सुनो सुजन अब बात, भाव कुदरत के कोमल;
नहीं समझता मनुज, समझते भ्रमर कोयल ।(1)
 
ज्ञानी से बन दे रहे, लेकर ज्ञान अनूप;
उल्टा सीधा जो मिला, लगे लुटाने खूब;
लगे लुटाने खूब, महिमा यह गुरुवर की;
पढ़कर पोथी चार, सुना दी शिष्यों को भी;
सुनो सुजन यह बात, ज्ञान भीतर से आता;
निपट निरक्षर भी कोई, तब ज्ञान सुनाता ।(2)

कुल्टा या फिर कुटिल-कटु, जिस घर बसती नार;
नाम न सुख संतोष का, अगला जन्म सम्भार;
अगला जन्म सम्भार, भार जीवन भर ढोना;
लिखा कर्म का लेख, व्यर्थ में कैसा रोना ;
सुनो सुजन यह बात, जन्म बीतेगा उल्टा ;
भुगत कर्मफल आप, नार तेरे घर कुल्टा ।

तीन कुण्डली

प्राणनाथ, विनती करुं, करुं जोड़कर हाथ;
मन करता है पहाड़ की, सैर आपके साथ;
सैर आपके साथ, हमें अब पहाड़ दिखा दो;
तीन सौ सत्तर गई, अभी कश्मीर दिखा दो;
फुर्ति से तब गूगल खोला, सस्ते में था त्राण;
दिखा दिया कश्मीर हमें, अटके अटके प्राण ।(1)

कैसे बीता था रहा, यह सावन का मास ;
मन में उठी हिलोर अब, गाऊं बारह मास;
गाऊं बाहर मास , हिंडोले झूल नहीं हैं;
पल में जल करने वाली , न घटा कहीं हैं
आते रहते याद,  बीत गए सावन जैसे;
अब सावन का नाम, कहो ये सावन कैसे ।(2)

निश्छल जीवन हो जहां, वहां कैसा क्षोभ;
जैसा देखा कह दिया, परे समूचा रोग;
प्रेम समूचा रोग, नहीं निज-पर को गहता;
जहां दीखता रोग, साफ साफ सब कहता;
सुनो सुजन वह जन, वचनों पर रहे अटल;
सत्य का रक्षक सदा , रख जीवन निश्छल ।(3)


मंगलवार, 14 जुलाई 2020

तीन कुण्डलियां

कविता सरिता सी बहे, बन जाते तब छंद;
वीणापाणी से हुआ , कुछ ऐसा अनुबंध;
कुछ ऐसा अनुबंध, छंद अब कौन गढ़ेगा;
कलम चले तब काव्यशास्त्र को कौन पढ़ेगा;
सुनो सुजन सच बात, शब्द की पावन सरिता;
हृदय बहे रसधार, बने तब आप कविता ।(1)

गौपालक दिखते नहीं, कालिंदी के तीर;
कामधेनु सी गौ कहां, गऊंयें सहती पीर;
गऊंयें सहती पीर, वहां व्यापार भाव है;
गौमाता की सेवा पूजा का अभाव है ;
सुनो सुजन चंदा खाते हैं ये गौशालक;
अखबारों तक सीमित रह गये अब गौपालक ।(2)

कुत्ता पाला चाव से, रखती सार सम्भाल;
साबुन से नहला दिया, अण्डा दिया उबाल;
अण्डा दिया उबाल, सुस्त सा दिया दिखाई;
कर डाक्टर को फोन, वहां घण्टी खनकाई;
आधुनिक नारी को बस कुत्ते की चिंता;
बन गये पति गुलाम , पति सा प्यारा कुत्ता ।

शनिवार, 11 जुलाई 2020

तीन कुण्डलियां

भाई भाई लड़ रहे, करें पड़ोसी मौज;
घुटने टेके गैर को, नहीं लाज का खोज;
नहीं लाज का खोज, अकल पर पत्थर भारी;
अपने ने अपने को दे दी, यह लाचारी;
करो प्रेम से वास, करो मत कभी लड़ाई;
हंसें पड़ोसी लोग ,लड़े जब भाई भाई ।(1)

उन्नीस तो उन्नीस रहा, बीस चार सौ बीस;
न जाने कब कब मिली, किसको क्या बख्शीश;
किसको क्या बख्शीश, कहीं सरकार गिराई ;
देकर कुछ बख्शीश आप दिल्ली जलवाई ;
महामारी आयात की, जिसकी ज्यादा टीस;
कुदरत सब कुछ देखती, रहे न वह उन्नीस ।(2)

रही अकेली झूठ कब, रखती संग में झुण्ड;
लोग झूठ के झुण्ड में , रहें मारते मुण्ड ;
रहें मारते मुण्ड , हारकर थक बैठे हैं ;
झूठे संग संग बैठ ,मलाई चख रहते हैं ;
हाल साल में जनता ने कितनी ही झूठ सही;
जादूगर का राज , आज यहां झूठी झूठ रही ।(3)

कुण्डलिया छंद, तीन रचनाएं

राम भरोसे राम के, रहा भरोसे खूब;
मुझे भरोसा राम का, कहकर जाता झूम;
कहकर जाता झूम, काम से तोड़ा नाता;
पत्नी मांगे खर्च,  हाथ तत्काल हिलाता;
छुटते निश दिन तीर जहर में बुझे बुझे से;
मिट गई घर की शाख, रहा था रामभरोसे ।(1)

दादा जी के नाम का, रहा न नाम निशान;
खानदान की शाख का, अब दो कौड़ी दाम;
अब दो कौड़ी दाम, दाम भी कौन लगाये ;
घट जाती जब शाख, वहां न कोई जाये;
अब रटते दिन रात ,मुरारी संग राधा जी;
बात न मानी एक, कह गये जो दादा जी । (2) 

यारी पैसे से करो, मिले सहज सब ज्ञान;
सहज सुलभ होगा सभी, मान और सम्मान;
मान और सम्मान, देश बाजार हो गया;
क्रेता-विक्रेता सा हर व्यवहार हो गया ;
अब बंधुआ मजदूर, बनायेगी बेकारी ;
बुझे पेट की आग, काम से होगी यारी ।


बुधवार, 8 जुलाई 2020

कर्म कामना

हे कर्म आनन्द दाता ! यह दया अब कीजिए;
न रहे बेकार कोई प्यार सबसे कीजिए ।

एक तेरे बिन नहीं मिलता जगत से प्यार है ,
काम से सब प्यार‌ करते यह जगत व्यवहार है;
काम बिन कैसे गुजारा, पेट सबका मांगता,
ताप-सर्दी से बचें, तन पर वसन मन मांगता ;
धूप बारिश रात का तम सह सके छत चाहिए,
नार घर की रह सके, एक कोठरी भी चाहिए ;
हो सके सब का गुजारा, न्याय ऐसा कीजिए,
न रहे बेकार कोई काम सबको दीजिए  ।

दोष सारे आदमी यह काम बिन पाता सदा,
न निकट हो आप जिसके वह निट्ठला सर्वदा;
झूठ चोरी और जारी अवगुणों में पड़ गया,
आपके बिन सद्गुणी बिन मौत के ही मर गया;
एक तू ईश्वर सभी का, कर्म यहां प्रधान है,
कर्म बिन होता यहां सबका सदा अपमान है;
अब दया कर पास सबके पहुंच कर कुछ कीजिए,
आपके संग से उठेंगे, साथ सबका दीजिए ;

हे कर्म आनन्द दाता, यह दया अब कीजिए,
न रहे बेकार कोई, प्यार सबसे कीजिए ।

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

संदेश

चिड़िया चहकी मेरे आंगन, दाना चुगती, गर्दन हिलती;
हमने तो खुश होकर देखा, , हमें देख फर फर कर उड़ती;
बैठ गई वह एक डाल पर चीं चीं करके लगी सुनाने ;
यदि नहीं तुम मानव होते, तुम्हें देखकर कभी न उड़ती ।

मैंने पूछा, क्या हमने मानव बनकर कुछ पाप किया है?
दाना पानी दान अनेकों, खूब पुण्य का काम किया है ?
चीं चीं चीं चीं लगी चिढ़ाने, छी:छी:छी:छी: सौंप रही थी,
बोली पुण्य कमाने खातिर, बस तुमने पाखण्ड किया है ।

मैं तो कुदरत की बेटी हूं, इसिलिये तो खुश रहती हूं;
दान पुण्य से दूर हमेशा , मस्त स्वयं में ही रहती हूं;
पैसे का लालच क्या होता, इन बातों से बड़ी दूर हूं,
नहीं जोड़ने की भी आदत , रोज कमाकर खा लेती हूं।

सबसे ज्यादा दुष्ट तुम्हीं हो, तुमसे डर कर रहना होता;
चीर फ़ाड़ सब कुछ खा लेते, या पिंजरे में रहना होता;
जीवन पर अधिकार हमारा, इसका तुमको ज्ञान न कोई;
तुमको बस जो भी मिल जाये, वह आधीन बनाना होता ।

जितने दोपाये धरती पर , सबको रोग भयंकर होता,
जोड़ तोड़ दिल तोड़ , लक्ष्मी प्रतिष्ठा का लालच होता;
बुद्धि सबसे ज्यादा देकर कुदरत ने कुछ दोष किया है,
इसिलिये हर एक दोपाया जीवन के सब आनन्द खोता ।




सोमवार, 6 जुलाई 2020

लक्ष्य

दुर्गम पर्वत स्रोत बने हैं, नदियां बन कर बहती जाती;
तीव्र गति से आगे बढ़कर, ये सागर से मिलना चाहती;
जब सागर से जा मिलती है, क्या तब ये नदियां रह जाती;
बूंद बूंद सागर में गिरकर, ये खुद ही सागर कहलाती ।

उद्गम से लेकर सागर तक जो कुछ इन नदियों ने भोगा;
कटे किनारे, हटती धारा, मैल मलिनों का सब धोया ;
अपनी छाती पर सरिताओं ने नावों का बोझा ढोया;
नीचे जलचर ऊपर थलचर, न जाने कितना क्या भोगा।

जितने कष्ट मिले मार्ग में सबको पीछे रही छोड़ती;
मुड़कर भी न देखा उनको मिलने की ऐसी बेताबी;
जब जड़ पर्वत को छोड़ा था, सीख लिया था लक्ष्य बनाना;
नहीं रहूंगी केवल नदिया, चाहती थी सागर बन जाना।

एक लक्ष्य निर्धारित करके बढ़ी निरन्तर आगे आगे;
कष्टों को भी सहज समेटा, जो आये थे उसके आगे;
नहीं शिकायत कभी किसी से, चाहें कष्ट अनेकों पाई;
इसिलिये धीमति सरिता, सुख से सागर में मिल पाई ।

रविवार, 5 जुलाई 2020

रहस्य

तुम बनकर यान उड़ो नभ में, मुझको यह धरती प्यारी है;
तुम रहो बदलते जीवन को , मेरी प्रारब्ध से यारी है ।
यह हवा आज सब तरफ उड़ी, जिसका जीवन से मेल नहीं;
जो जब जैसा भी सोचेगा , उसको मिलने की तैयारी है ।

यदि सोच सोच से कुछ होता तो निर्धन बोल कौन होता;
न होता कोई भी रोगी, न निसंतान कोई होता ;
सब ही तो सब कुछ पा लेते, सहता दुख को कौन भला;
सबको ही सारे ही सुख होते , तब जग में कौन 
दुखी होता ।

यह जग मैदान खेल का है, जिसमें कुदरत खेला करती;
जो कुछ भी यहां पर होता है, अपनी मर्जी से वह करती;
कुदरत की जड़ता को जीवन जब चेतनता से मिल जाता;
उसकी चेतनता के कारण , यह जोड़ घटा खुद ही करती।

सुख दुख की आंख मिचौली तो सारा जीवन ही चलती है;
तुम हो जाते हो लिप्त स्वयं तब वह भी खाता लिखती है;
जो गोद बैठकर कुदरत की, शिशु बनकर उसे चूम लेता;
सच मानों तुम उसके खाते को फ़ाड़ स्वयं वह देती है ।

बस पहुंच चुके तुम ऐसा कर , अब जीवन का आनन्द भोगों;
न कष्ट कभी मिल पायेगा, कुदरत का प्यार सदा भोगों;
मानव से न्यारे जितने भी प्राणी इस दुनियां में रहते ;
सब आनंदित जीवन जीते, तुम भी तो वह जीवन भोगों ।


शनिवार, 4 जुलाई 2020

देखा क्या ?

कभी देखा है आपने
किसी लाचार वृद्ध को, किसी झुकी कमर को, धुंधली आंखों से गिरता पानी, 
पोपला मुंह
चेहरे पर झुर्रियां
आंखों पर ऐनक, हाथ में छड़ी
यदि दिखाई दें कहीं ऐसी मूर्ति
काम छोड़कर, बैठ जाईए कुछ देर उसके पास
सच में
इतना शकुन मिलेगा , आपको भी और उसे भी
आशीर्वाद की झड़ी लग जायेगी , सरसाई आयेगी
क्या दिया आपने उसे
न खाना, न पैसे, बस थोड़ा सा समय
जिससे उसको मिली आत्मिक तृप्ति
सच मानोगे
यही आत्म तृप्ति , ईश्वर के खुश होने का संकेत
जो नहीं देते अपनों को भी यह तृप्ति
हैवान होते हैं, तमोगुणी राक्षस , रजोगुणी लालच से भरे
जब सतोगुण हावी होता है
तब मनुष्य को अपना नहीं औरों का ख्याल होता है
हर लाचार, वृद्ध, बालक, जरुरत मंद , भूखा, निराशा,
उदास ;
जो भी सम्मुख आता है, उसे अपना दीख जाता है
उसकी जरूरत की पूर्ति , बन जाते हो आप 
उस हेतू ईश्वर की मूर्ति
यही आत्म विस्तार है
इसी से हर मानव का उद्धार है ।

शुक्रवार, 3 जुलाई 2020

हत्यारिन

हां, मैं हत्यारिन हूं
न जाने कब कब किसके अरमानों की
बेरहमी से हत्या की है मैंने
हत्या के लिए प्रयुक्त होने वाले हथियारों में
धारदार वाणी भी तो समाहित है न
शस्त्र से हत्या, 
हत्या का कंलक
केस
जेल
लेकिन वाणी से की जाने वाली हत्या
जिससे कोई मर जाता है , सदा सदा के लिए
टूट जाते हैं रिश्ते हमेशा के लिए
न केस न जेल न कोई कलंक
लगभग हर औरत बनती है हत्यारिन
जीवन काल में
उसे आना होता है पराये घर
निभाने होते हैं अनचाहे रिश्ते
या तो हत्या उसकी होती है
या उसे हत्यारिन बनना पड़ता है
तन की हत्या से मन की हत्या 
शायद अधिक पाप चढ़ाती है
हत्यारिन के सिर पर
मर जाता है मन किसी सास का
किसी बहु का
किसी पति का या किसी पत्नी का
जीवन का भार ढोना नियति बन जाती है
या आत्महत्या से की जाती है जीवन लीला समाप्त
क्या यह हत्या नहीं है कि हमारी वजह से
फांसी के फंदे पर झूल जाये कोई
या घुट-घुट कर जीने की लाचारी
न जाने कितने हत्यारे या हत्यारिन 
पाप मुक्त , हंसते खिलखिलाते
हत्या के जुर्म से बचें रहते हैं
हो सकता है हमने भी जाने अंजाने
हत्या की हो किसी अपने की, 
हमें ही नहीं पता, तो कानून को कैसे पता चलेगा
हत्यारिन खिलखिलाती रहेगी
हत्या होती रहेगी ।

गुरुवार, 2 जुलाई 2020

दासता

सही दासता जो पुरुखों ने, मिल गई हमें विरासत में;
चले गए अंग्रेज यहां से, रह गई गंध सियासत में ।

लोकतंत्र कैसा भारत का, राजतन्त्र सी तर्ज बनी;
तानाशाही नेता करते , पूंजी सारी सिमट गयी;
सिमट गई सत्ता दो दल में, एक बेल के कद्दू से;
बटन दबाने खातिर सारी जनता ही लाचार बनी ;
मौज मनाते नेता अपनी, सांझा मिले सियासत में;
सही दासता जो पुरुखों ने मिल गई हमें विरासत में ।

प्रजापत का एक गधा था, रोज शाम को बंधता था;
बंधन से लाचारी लेकर, बस वह सोता रहता था ;
प्रजापत ने खुला छोड़ दिया, एक दिन अपनी गलती से;
रस्सी से ही बंधा हुआ हूं, खुल कर भी यह सोचा था;
पूत गधे का,  मिला हुआ था बंधन उसे विरासत में ;
सही दासता जो पुरुखों ने मिल गई हमें विरासत में ।

कुछ मुट्ठी भर मालिक बन कर, अपना राज चलाते हैं;
लोकतंत्र शासन है तो कुछ टुकड़े भी मिल जाते हैं;
लेकिन क्या यह आजादी है, जो हमको मिल पाई थी;
स्वराज्य हित होम हुए जो अब तक कटते जाते हैं ;
स्वार्थ सने अब नेता सारे,  मिलता दोष विरासत में;
सही दासता जो पुरुखों ने, मिल गई हमें विरासत में ।

बिक गया राज समाज बट चुका, वोटतन्त्र यहां सफल नहीं;
बहुतायत भारत की जनता, लोकतंत्र का ज्ञान नहीं ;
अशिक्षा और भूख देश में, अब तक रोटी की चिंता;
रोटी खातिर वोट बेचते ,  काम धाम जहां पास नहीं;
कलमकार की कौन सुनेगा, सांझा नहीं सियासत में;
सही दासता जो पुरुखों ने, मिल गई हमें विरासत में;
चले गए अंग्रेज यहां से रह गई गंध सियासत में ।

मन की लहरें

कभी कभी मेरे इस मन में, उठती ऐसी ऐसी लहरें;ढोल बांध कर निकल पड़ूं मैं, चिल्लाऊं कोई तो सुन ले।
जैसे हैं हालात देश के, सबका भण्डा फोड़ करुं मैं;केस दर्ज हो जायें कितने , हवालात से नहीं डरुं मैं ;मेरे इस ढिढोरपने से कुछ जागृति ही आ जाये;होगा शान्त तभी मन मेरा, साफ साफ सबको दिख जाए;पतन देश का होता जाता, राजभक्त अंधे ही ठहरे ;कभी कभी मेरे इस मन में उठती ऐसी ऐसी लहरें ।

अनघड़ सी सरकार हमारी, बजवा देती ताली थाली;होते रोज शहीद सीम पर, यह अपनी धुन में मतवाली ;अपना दोष धरे औरों पर, पैसे से सरकार बनाये ;जिनको रोटी की चिंता है, कौन उन्हें जाकर समझाये;देश बना अंधों की नगरी, नेता नहीं बात पर ठहरें ;कभी कभी मेरे इस मन में उठती ऐसी ऐसी लहरें

नवभारत निर्माण

हम कौन थे, क्या बन रहें हैं, और क्या होंगे अभी;
प्रबुद्ध जन ! मिल कर विचारों , एक बार तो कभी;
मेल दिखता ही नहीं है, सब हटे हैं, सब कटे ;
धर्म जाति वर्ग भाषा के बहाने सब बंटे ।

भिन्न पुष्पों से बना ज्यों हार सज जाता गले ;
मातृभूमि के गले में यों सजें तब ही भले ;
राष्ट्र वादी एकता विभिन्नता को मेंट  दे ;
नागरिक प्रत्येक एक भारतवंशी ही रहे ।

लोकतंत्र देश में तब ही सफल हो पायेगा;
हर किसी के सामने मत का महत्व आयेगा;
यह तभी सम्भव बने, शिक्षित सभी हो जायेंगे;
जब तलक सम्भव नहीं, अयोग्य कुर्सी पायेंगे ।

हे देश के प्रबुद्ध जन ! यह ही सही विकास है;
न रहे कोई अशिक्षित देश तब यह खास है ;
न किसी सरकार से कोई हमें अब आस है ;
सर्वार्थ में सब तुल चुके नेता नहीं ये नाश हैं ।

आओं हमीं संकल्प लेकर, देश का हित कर सकें;
मेट दें अशिक्षा सारी, जागरुक भी कर सकें ;
फैशन नहीं जीवन कभी, कुछ आत्मिक विस्तार हो;
काम को जीवन बनायें, देश का निस्तार हो ।

समाप्त

भारतीय किसान- मजदूर

मैं मजदूर हूं भारत का, मैं भारत का किसान ,
मेरी मेहनत की बोलो, कब की किसने पहचान ।

कुर्सी हो कितनी भी ऊंची, खानी होती सबको रोटी;
जिस कुर्सी पर जम कर बैठे, उसमें मेहनत मेरी होती;
उड़ जाते हैं बैठ यान में, भारी भरकम जेब लिए,
यान बनाने में भी मेहनत सारी ही मेरी होती ;
मुझसे आंख मूंद कर देता तू अपनी पहचान ;
मैं मजदूर हूं भारत का, मैं भारत का किसान ।

कैसे कह दूं मैं भारत में पैदा हो प्रसन्न हुआ;
मान और सम्मान देश में कामगार का खत्म हुआ;
जोड़ तोड़ तू करें खूब, मुझको तो मेहनत आती है;
इसलिए तो मैं पीढ़ी दर पीढ़ी ही परेशान हुआ ;
तेरी चालाकी  की मैंने खूब करी पहचान ;
मैं मजदूर हूं भारत का, मैं भारत का किसान ।

चंद धनिक जिनके हाथों में, मेरी मेहनत सिमट गई;
मेरे बच्चे भूखे प्यासे, बंटती रोज जमीन गई ;
लदा हुआ है सिर पर कर्जा, बेचैनी में जीता हूं;
चोरों का ऋण माफ समूचा, बात मेरी न सुनी गई;
रीढ़ हमीं, आघात हमीं पर, ले ली कितनी जान;
मैं मजदूर हूं भारत का, मैं भारत का किसान ।
समाप्त

रविवार, 28 जून 2020

अपनापन

अपनी भाषा प्यारी होती, अपना पहनावा प्यारा;
रुचता अपना खान-पान और अपना देश लगे प्यारा;
अपनेपन का भाव जहां हो, सारे दुख मिट जाते हैं;
गैरों के अमृत के सम्मुख अपना नीर लगे प्यारा ।

अपनेपन के कारण ही तो सृष्टि चक्र सदा चलता;
नहीं बुरा कुछ भी लगता है, जब जब अपनापन मिलता;
अपनेपन का भाव जहां हो, सब मीठा बन जाता है;
अपनेपन के कारण मानव सारे कष्ट उठा जाता ।

खट्टी लस्सी अपनी मीठी,  दूध गैर का पानी है ;
यह अपनापन केवल, सारे जग की एक कहानी है;
इसी भाव से घर बनते हैं , यही राष्ट्र का निर्माता;
बनो हितैषी भारत मां के, दुनियां आनी जानी है ।

मूलभूत जो हर मानव की तीन जरुरत होती है ;
उनसे वंचित रहे न कोई, आह ! निर्धन की होती है;
अपनेपन का भाव बना कर, एक एक मानव के साथ;
मानव सा उनकोजीवन दो, यह मानवता होती है ।

कुण्डलिया

खेतिहर ने रच दिया, एक नया इतिहास, एक एकता बन चुकी, मिलकर करें विकास; मिलकर करें विकास, नहीं मजदूर बनेंगे, अपनी भूमि पर, इच्छा से काश्त करेंगे ;