मेरी मेहनत की बोलो, कब की किसने पहचान ।
कुर्सी हो कितनी भी ऊंची, खानी होती सबको रोटी;
जिस कुर्सी पर जम कर बैठे, उसमें मेहनत मेरी होती;
उड़ जाते हैं बैठ यान में, भारी भरकम जेब लिए,
यान बनाने में भी मेहनत सारी ही मेरी होती ;
मुझसे आंख मूंद कर देता तू अपनी पहचान ;
मैं मजदूर हूं भारत का, मैं भारत का किसान ।
कैसे कह दूं मैं भारत में पैदा हो प्रसन्न हुआ;
मान और सम्मान देश में कामगार का खत्म हुआ;
जोड़ तोड़ तू करें खूब, मुझको तो मेहनत आती है;
इसलिए तो मैं पीढ़ी दर पीढ़ी ही परेशान हुआ ;
तेरी चालाकी की मैंने खूब करी पहचान ;
मैं मजदूर हूं भारत का, मैं भारत का किसान ।
चंद धनिक जिनके हाथों में, मेरी मेहनत सिमट गई;
मेरे बच्चे भूखे प्यासे, बंटती रोज जमीन गई ;
लदा हुआ है सिर पर कर्जा, बेचैनी में जीता हूं;
चोरों का ऋण माफ समूचा, बात मेरी न सुनी गई;
रीढ़ हमीं, आघात हमीं पर, ले ली कितनी जान;
मैं मजदूर हूं भारत का, मैं भारत का किसान ।
समाप्त
सुंदर पोस्ट
जवाब देंहटाएंमजदूरों पर शानदार रचना👌👌👌
जवाब देंहटाएंआभार रेणु, बस अब पता चलता जा रहा है।
जवाब देंहटाएंजी आप जरुर सीख जायेगी | पहले भी खूब पता है आपको | प्रणाम |
हटाएंबहुत सामयिक और सुन्दर रचना
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