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रविवार, 5 जुलाई 2020

रहस्य

तुम बनकर यान उड़ो नभ में, मुझको यह धरती प्यारी है;
तुम रहो बदलते जीवन को , मेरी प्रारब्ध से यारी है ।
यह हवा आज सब तरफ उड़ी, जिसका जीवन से मेल नहीं;
जो जब जैसा भी सोचेगा , उसको मिलने की तैयारी है ।

यदि सोच सोच से कुछ होता तो निर्धन बोल कौन होता;
न होता कोई भी रोगी, न निसंतान कोई होता ;
सब ही तो सब कुछ पा लेते, सहता दुख को कौन भला;
सबको ही सारे ही सुख होते , तब जग में कौन 
दुखी होता ।

यह जग मैदान खेल का है, जिसमें कुदरत खेला करती;
जो कुछ भी यहां पर होता है, अपनी मर्जी से वह करती;
कुदरत की जड़ता को जीवन जब चेतनता से मिल जाता;
उसकी चेतनता के कारण , यह जोड़ घटा खुद ही करती।

सुख दुख की आंख मिचौली तो सारा जीवन ही चलती है;
तुम हो जाते हो लिप्त स्वयं तब वह भी खाता लिखती है;
जो गोद बैठकर कुदरत की, शिशु बनकर उसे चूम लेता;
सच मानों तुम उसके खाते को फ़ाड़ स्वयं वह देती है ।

बस पहुंच चुके तुम ऐसा कर , अब जीवन का आनन्द भोगों;
न कष्ट कभी मिल पायेगा, कुदरत का प्यार सदा भोगों;
मानव से न्यारे जितने भी प्राणी इस दुनियां में रहते ;
सब आनंदित जीवन जीते, तुम भी तो वह जीवन भोगों ।


5 टिप्‍पणियां:

yes

कुण्डलिया

खेतिहर ने रच दिया, एक नया इतिहास, एक एकता बन चुकी, मिलकर करें विकास; मिलकर करें विकास, नहीं मजदूर बनेंगे, अपनी भूमि पर, इच्छा से काश्त करेंगे ;