तुम रहो बदलते जीवन को , मेरी प्रारब्ध से यारी है ।
यह हवा आज सब तरफ उड़ी, जिसका जीवन से मेल नहीं;
जो जब जैसा भी सोचेगा , उसको मिलने की तैयारी है ।
यदि सोच सोच से कुछ होता तो निर्धन बोल कौन होता;
न होता कोई भी रोगी, न निसंतान कोई होता ;
सब ही तो सब कुछ पा लेते, सहता दुख को कौन भला;
सबको ही सारे ही सुख होते , तब जग में कौन
दुखी होता ।
यह जग मैदान खेल का है, जिसमें कुदरत खेला करती;
जो कुछ भी यहां पर होता है, अपनी मर्जी से वह करती;
कुदरत की जड़ता को जीवन जब चेतनता से मिल जाता;
उसकी चेतनता के कारण , यह जोड़ घटा खुद ही करती।
सुख दुख की आंख मिचौली तो सारा जीवन ही चलती है;
तुम हो जाते हो लिप्त स्वयं तब वह भी खाता लिखती है;
जो गोद बैठकर कुदरत की, शिशु बनकर उसे चूम लेता;
सच मानों तुम उसके खाते को फ़ाड़ स्वयं वह देती है ।
बस पहुंच चुके तुम ऐसा कर , अब जीवन का आनन्द भोगों;
न कष्ट कभी मिल पायेगा, कुदरत का प्यार सदा भोगों;
मानव से न्यारे जितने भी प्राणी इस दुनियां में रहते ;
सब आनंदित जीवन जीते, तुम भी तो वह जीवन भोगों ।
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार आपका आदरणीय
हटाएंसुख दुःख धूप छाँव हमेशा रहती है जीवन में ... जीवन के इस आसान रहस्य को अगर इंसान समझ ले तो बात ही क्या ...
जवाब देंहटाएंआभार आपका आदरणीय
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