कभी कभी मेरे इस मन में, उठती ऐसी ऐसी लहरें;ढोल बांध कर निकल पड़ूं मैं, चिल्लाऊं कोई तो सुन ले।
जैसे हैं हालात देश के, सबका भण्डा फोड़ करुं मैं;केस दर्ज हो जायें कितने , हवालात से नहीं डरुं मैं ;मेरे इस ढिढोरपने से कुछ जागृति ही आ जाये;होगा शान्त तभी मन मेरा, साफ साफ सबको दिख जाए;पतन देश का होता जाता, राजभक्त अंधे ही ठहरे ;कभी कभी मेरे इस मन में उठती ऐसी ऐसी लहरें ।
अनघड़ सी सरकार हमारी, बजवा देती ताली थाली;होते रोज शहीद सीम पर, यह अपनी धुन में मतवाली ;अपना दोष धरे औरों पर, पैसे से सरकार बनाये ;जिनको रोटी की चिंता है, कौन उन्हें जाकर समझाये;देश बना अंधों की नगरी, नेता नहीं बात पर ठहरें ;कभी कभी मेरे इस मन में उठती ऐसी ऐसी लहरें ।
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जवाब देंहटाएंबहुत खूब आदरणीय दीदी ! बेबाक , बिंदास लेखन ! एकदम हरियाणवी छटा लिए हुए |अव्यवस्था से उद्वेलित मन की हुंकार | वाह !
जवाब देंहटाएंआभार अनुजा
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