तीव्र गति से आगे बढ़कर, ये सागर से मिलना चाहती;
जब सागर से जा मिलती है, क्या तब ये नदियां रह जाती;
बूंद बूंद सागर में गिरकर, ये खुद ही सागर कहलाती ।
उद्गम से लेकर सागर तक जो कुछ इन नदियों ने भोगा;
कटे किनारे, हटती धारा, मैल मलिनों का सब धोया ;
अपनी छाती पर सरिताओं ने नावों का बोझा ढोया;
नीचे जलचर ऊपर थलचर, न जाने कितना क्या भोगा।
जितने कष्ट मिले मार्ग में सबको पीछे रही छोड़ती;
मुड़कर भी न देखा उनको मिलने की ऐसी बेताबी;
जब जड़ पर्वत को छोड़ा था, सीख लिया था लक्ष्य बनाना;
नहीं रहूंगी केवल नदिया, चाहती थी सागर बन जाना।
एक लक्ष्य निर्धारित करके बढ़ी निरन्तर आगे आगे;
कष्टों को भी सहज समेटा, जो आये थे उसके आगे;
नहीं शिकायत कभी किसी से, चाहें कष्ट अनेकों पाई;
इसिलिये धीमति सरिता, सुख से सागर में मिल पाई ।
बहुत खूब, आगे बढ़ने की प्रेरणा देती अति सुन्दर रचना,सादर नमस्कार आप को
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