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शनिवार, 11 जुलाई 2020

कुण्डलिया छंद, तीन रचनाएं

राम भरोसे राम के, रहा भरोसे खूब;
मुझे भरोसा राम का, कहकर जाता झूम;
कहकर जाता झूम, काम से तोड़ा नाता;
पत्नी मांगे खर्च,  हाथ तत्काल हिलाता;
छुटते निश दिन तीर जहर में बुझे बुझे से;
मिट गई घर की शाख, रहा था रामभरोसे ।(1)

दादा जी के नाम का, रहा न नाम निशान;
खानदान की शाख का, अब दो कौड़ी दाम;
अब दो कौड़ी दाम, दाम भी कौन लगाये ;
घट जाती जब शाख, वहां न कोई जाये;
अब रटते दिन रात ,मुरारी संग राधा जी;
बात न मानी एक, कह गये जो दादा जी । (2) 

यारी पैसे से करो, मिले सहज सब ज्ञान;
सहज सुलभ होगा सभी, मान और सम्मान;
मान और सम्मान, देश बाजार हो गया;
क्रेता-विक्रेता सा हर व्यवहार हो गया ;
अब बंधुआ मजदूर, बनायेगी बेकारी ;
बुझे पेट की आग, काम से होगी यारी ।


3 टिप्‍पणियां:

yes

कुण्डलिया

खेतिहर ने रच दिया, एक नया इतिहास, एक एकता बन चुकी, मिलकर करें विकास; मिलकर करें विकास, नहीं मजदूर बनेंगे, अपनी भूमि पर, इच्छा से काश्त करेंगे ;