हमने तो खुश होकर देखा, , हमें देख फर फर कर उड़ती;
बैठ गई वह एक डाल पर चीं चीं करके लगी सुनाने ;
यदि नहीं तुम मानव होते, तुम्हें देखकर कभी न उड़ती ।
मैंने पूछा, क्या हमने मानव बनकर कुछ पाप किया है?
दाना पानी दान अनेकों, खूब पुण्य का काम किया है ?
चीं चीं चीं चीं लगी चिढ़ाने, छी:छी:छी:छी: सौंप रही थी,
बोली पुण्य कमाने खातिर, बस तुमने पाखण्ड किया है ।
मैं तो कुदरत की बेटी हूं, इसिलिये तो खुश रहती हूं;
दान पुण्य से दूर हमेशा , मस्त स्वयं में ही रहती हूं;
पैसे का लालच क्या होता, इन बातों से बड़ी दूर हूं,
नहीं जोड़ने की भी आदत , रोज कमाकर खा लेती हूं।
सबसे ज्यादा दुष्ट तुम्हीं हो, तुमसे डर कर रहना होता;
चीर फ़ाड़ सब कुछ खा लेते, या पिंजरे में रहना होता;
जीवन पर अधिकार हमारा, इसका तुमको ज्ञान न कोई;
तुमको बस जो भी मिल जाये, वह आधीन बनाना होता ।
जितने दोपाये धरती पर , सबको रोग भयंकर होता,
जोड़ तोड़ दिल तोड़ , लक्ष्मी प्रतिष्ठा का लालच होता;
बुद्धि सबसे ज्यादा देकर कुदरत ने कुछ दोष किया है,
इसिलिये हर एक दोपाया जीवन के सब आनन्द खोता ।
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार १० जुलाई २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
"बोली पुण्य कमाने खातिर, बस तुमने पाखण्ड किया है।" - पक्षी के माध्यम से अनमोल वचन .. काश! मानव होने का मान हम सभी रख पाते ... अभी सावन में भी शाकाहारी होने का खूब पाखण्ड करते हैं हम मानव .. शायद ...
जवाब देंहटाएंVery nice post
जवाब देंहटाएंMere blog par aapka swagat hai...
बहुत सुंदर सृजन मानव की अमानवीय प्रवृत्ति पर प्रहार करती कविता।
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