चले गए अंग्रेज यहां से, रह गई गंध सियासत में ।
लोकतंत्र कैसा भारत का, राजतन्त्र सी तर्ज बनी;
तानाशाही नेता करते , पूंजी सारी सिमट गयी;
सिमट गई सत्ता दो दल में, एक बेल के कद्दू से;
बटन दबाने खातिर सारी जनता ही लाचार बनी ;
मौज मनाते नेता अपनी, सांझा मिले सियासत में;
सही दासता जो पुरुखों ने मिल गई हमें विरासत में ।
प्रजापत का एक गधा था, रोज शाम को बंधता था;
बंधन से लाचारी लेकर, बस वह सोता रहता था ;
प्रजापत ने खुला छोड़ दिया, एक दिन अपनी गलती से;
रस्सी से ही बंधा हुआ हूं, खुल कर भी यह सोचा था;
पूत गधे का, मिला हुआ था बंधन उसे विरासत में ;
सही दासता जो पुरुखों ने मिल गई हमें विरासत में ।
कुछ मुट्ठी भर मालिक बन कर, अपना राज चलाते हैं;
लोकतंत्र शासन है तो कुछ टुकड़े भी मिल जाते हैं;
लेकिन क्या यह आजादी है, जो हमको मिल पाई थी;
स्वराज्य हित होम हुए जो अब तक कटते जाते हैं ;
स्वार्थ सने अब नेता सारे, मिलता दोष विरासत में;
सही दासता जो पुरुखों ने, मिल गई हमें विरासत में ।
बिक गया राज समाज बट चुका, वोटतन्त्र यहां सफल नहीं;
बहुतायत भारत की जनता, लोकतंत्र का ज्ञान नहीं ;
अशिक्षा और भूख देश में, अब तक रोटी की चिंता;
रोटी खातिर वोट बेचते , काम धाम जहां पास नहीं;
कलमकार की कौन सुनेगा, सांझा नहीं सियासत में;
सही दासता जो पुरुखों ने, मिल गई हमें विरासत में;
चले गए अंग्रेज यहां से रह गई गंध सियासत में ।
आज के सच को बयां करती कविता।
जवाब देंहटाएंआभार आपका आदरणीय
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली गीत।
जवाब देंहटाएंआभार आपका आदरणीय
हटाएंप्रजापत का एक गधा था, रोज शाम को बंधता था;
जवाब देंहटाएंबंधन से लाचारी लेकर, बस वह सोता रहता था ;
प्रजापत ने खुला छोड़ दिया, एक दिन अपनी गलती से;
रस्सी से ही बंधा हुआ हूं, खुल कर भी यह सोचा था;
पूत गधे का, मिला हुआ था बंधन उसे विरासत में ;
सही दासता जो पुरुखों ने मिल गई हमें विरासत में ।
वाह ! ओज भरी रचना आदरणीय दीदी |दस्ता को इससे बेहतर कोई परिभाषित नहीं कर पायेगा | प्रजापति के गधे की तरह ही दासता , दासों की नियति बन चुकी है | किसी को पता नहीं कि वे बंधन से मुक्त हो चुके हैं | असल में मानसिक गुलामी से निज़ात पाना बहुत मुश्किल है |अंग्रेजों के जाने के दशकों बाद भी हम उनकी नीतियों और भाषा का अनुसरण कर रहे हैं, ये दासता नहीं तो और क्या है ? ओज भरी रचना जो बहुत कुछ सिखाती है | सादर
आभार रेणू बहन
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