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शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

कुण्डली

कबिरा-तुलसी-जायसी, रचे छंद पर छंद;
नहीं स्वयं पर मुग्ध थे, ज्यों अब के कविवृंद;
ज्यों अब के कविवृंद, आप ही ढोल बजाते;
कवि कवि मैं कवि सुनो ! खुद को खा जाते;
कर दहिया में वास, बचा ले आप जमीरा;
आप फूटते छंद, निरक्षर संत कबीरा ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर।
    आप अन्य ब्लॉगों पर भी टिप्पणी किया करो।
    तभी तो आपके ब्लॉग पर भी लोग कमेंट करने आयेंगे।

    जवाब देंहटाएं
  2. मुझे अदला बदला नहीं करना मान्यवर, आपका आभार पोस्ट पढ़ने के लिए, अभी कुछ तकनीकी गड़बड़ी है मुझे अपने से न्यारा कोई ब्लाग नहीं दिखता है।

    जवाब देंहटाएं
  3. सच में दीदी अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बनने में आजके कवियों सा कोई नहीं | सत्ता के चारण और अपनी प्रशंसा खुद करने वाले अधम कवि बन गए आज थोड़ा बहुत कवित्व का ज्ञान रखने वाले | सार्थक कटाक्ष करती कुंडली |

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yes

कुण्डलिया

खेतिहर ने रच दिया, एक नया इतिहास, एक एकता बन चुकी, मिलकर करें विकास; मिलकर करें विकास, नहीं मजदूर बनेंगे, अपनी भूमि पर, इच्छा से काश्त करेंगे ;